Readers Write In #610: गुलज़ार के गीत में अमृता के अक्स

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Readers Write In #610: गुलज़ार के गीत में अमृता के अक्स
Readers Write In #610: गुलज़ार के गीत में अमृता के अक्स

By Vishnu Mahesh Sharma

नदी की नियति – समंदर में मिलना । लेकिन‌ नदी की हर धारा को ये नियति मंजूर नहीं होती । कुछ धाराएं बाग़ी होती हैं । वो खामोशी के साथ समंदर में अपना वजूद नहीं खोती, बल्कि मौका ढूंढती हैं एक अलग वजूद बनाने का । और जब कभी भौगोलिक परिस्थितियां थोडी सी भी अनुकूल होती हैं, यें बागी धाराएं अपनी नियति खुद लिखती हैं । चट्टानों को घोलकर बनाती हैं अपनी अलग पहचान। और तब ये ना तो नदी होती है और ना ही रहती हैं धाराएं। ये बन जाती हैं – झीलें । मीठी हो सकती हैं, खारी हो सकती हैं; गहरी हो सकती हैं, छिछली हो सकती हैं । पर होती हैं, अपने आप में मुकम्मल एक जल पिंड, एक जल शक्ति ।

इन स्वायत्त जल पिंडों में हम अपना अक्स देख सकते हैं और कुछ कुछ अपने अतीत का भी । किसी कवि या शायर की कल्पना भी इन बाग़ी धाराओं की सी होती है । सांसों के रुक जाने पर, कलम के थम जाने पर भी ये कल्पना अपना वजूद नहीं खोती । बल्कि अपने वक्त और समाज की चट्टानों को गलाकर बनती है एक काव्यात्मक झील और आनेवाली पीढ़ियां ढूंढती हैं इस झील में अपनी प्रेरणा के अक्स ।

अमृता प्रीतम । ये अपने वक्त की ऐसी ही एक बाग़ी धारा थी जिसकी झील में कई शायर अक्सर कुछ प्रेरणा खोज ही लेते हैं । जब से मैंने उनकी आत्मकथा ‘रसीदी टिकट’ पढ़ी तभी से उनका और सूरज का जो रिश्ता उन्होंने किताब में समझाया, वो मेरे ज़हन में छप सा गया है । कुछ तो, शायद, इसलिए कि मेरी अपनी कविता-कहानियों में सूरज अलग-अलग रुपों में आता रहा है, तो कुछ इसलिए कि अब मैं समझ पाया हूं कि कैसे प्रकृति के बिंब कल्पना को अनंत विस्तार दे सकते हैं । मसलन‌ उनकी लिखी ये पंक्तियां –

“सूरज को सारे ख़ून माफ हैं
दुनिया के हर इंसान का वह
रोज ‘एक दिन’ कत्ल करता है..”

या फिर बीते साल का सार बताती ये पंक्तियां –

“सूरज की पीठ की
फागुन ने उठते हुए सब गठरी पोटली बांध ली
ये भी तीन सौ पैंसठ दिन यूं ही चले गये “

लेकिन सूरज और अमृता जी का ये रिश्ता मेरे ज़हन में इतना गहरा उतरने का सबसे बड़ा कारण है उनकी और गुलज़ार साहब की पंक्तियों में रुपक और बिंबों की अद्भुत समानता ।

जहां अमृता जी लिखती हैं –

“अंधेरे के समुद्र में मैंने जाल डाला था
कुछ किरणें, कुछ मछलियां पकड़ने के लिए
कि जाल में पूरे-का-पूरा सूरज आ गया”

वहीं, फिल्म ‘ओमकारा’ में अपने गीत ‘ओ साथी रे’ के पहले अंतरे में, गुलज़ार साहब कुछ यूं लिखते हैं –

“थका-थका सूरज जब नदी से होकर गुजरेगा
हरी-हरी काई पर पांव पडा़ तो फिसलेगा…
तुम रोक के रखना, मैं जाल गिराऊं
तुम पीठ पे लेना, मैं  हाथ लगाऊं “

जाने कितने ही सालों के अंतराल पर लिखे गए इन शब्दों में और इनकी प्रकृति में, कितना  कुछ मिलता-जुलता है । जाल अमृता जी भी डालती हैं, जाल गुलज़ार साहब भी डालते हैं; और दोनों ही जालों में जो फंसता है वो सूरज ही है । अगर कोई मामूली फर्क है तो वो है जल पिंड का । अमृता जी अपना जाल समुद्र में बिछाती हैं तो गुलज़ार साहब नदी में जाल डालते दिखाई देते हैं ।

गुलज़ार साहब ने जब अपनी कल्पना के जाल में सूरज को फांसना चाहा तो क्या ये चेतन तौर पर अमृता जी का अक्स अपनी शायरी में उतारने की कोशिश थी? या फिर उनके अवचेतन में ‘प्रीतमी’ झील की कुछ जमी हुई बूंदें ही पिघलकर स्याही के जरिए कागज़ पर उतरीं?

जवाब तो सिर्फ गुलज़ार साहब दे सकते हैं, लेकिन ये ख्याल कि ‘हमारे वक्त की ये गुलज़ारी धारा उस प्रीतमी झील तक चलकर गई और बटोर ले आई हमारे लिए कुछ अमृत बूंदें’ – ये अपने आप में इतनी नरमी देने वाला और गुदगुदी करने वाला ख्याल था कि मेरी गंभीर कलम भी इतनी चंचल हो पडी़ कि अपनी ही धुन में, इन दो जल शक्तियों के झूले में झूलती हुई, कागज़ पर चलती चल पडी़ ।

हालांकि कि इसकी गुंजाइश ज्यादा है कि ओमकारा के इस गीत के माध्यम से, चेतन तौर‌ पर, अमृता जी को श्रद्धांजलि दी गई है । और ऐसा मैं सोचता हूं, उनके और गुलज़ार साहब के गुरु-शिष्य जैसे रिश्ते के कारण । गुलज़ार साहब ने कभी अमृता जी और इमरोज़ जी के रिश्ते के बारे में कुछ इस तरह लिखा –

“वो अपने कोरे कैनवास पर नज़्म लिखता है
तुम अपने कागज़ों पर नज़्में पेंट करती हो “

अमृता-इमरोज़ के रिश्ते को जिस सादगी और रूहानियत के साथ गुलज़ार साहब ने उकेरा और जिस मोहब्बत के साथ उन्होंने अमृता जी की नज़्म ‘मैं तेंनू फिर मिलांगी’ को आवाज दी उस से इस बात को ज्यादा जोर मिलता है कि ओमकारा का ये गीत एक शागिर्द की तरफ से उसके प्रेरणा स्रोत को दी गई एक भेंट है ।

लेकिन ऐसा न भी हो तब भी, गुलज़ार साहब के गीत में अमृता जी का अक्स मिल जाने से ये गीत कुछ और मीठा हो जाता है ।

प्रकृति के कैनवास पर ये गीत कुछ गुलजा़री और कुछ प्रीतम-कारी रंग इस कदर उभारता है कि यहां पांव पड़ने पर सूरज फिसले ना फिसले, हम तो फिसल ही जाते हैं और फंस जाते हैं एक ख़ूबसूरत जाल में । एक ऐसा जाल जो बुना गया है दो बहुत ही शायराना धागों से; जाल जो संगम है दो जल शक्तियों का; जाल जो मिलन है आज का और अतीत का; जाल जिसमें कैद है कुछ ‘गुलजा़री’ लफ्ज़ और कुछ ‘अमृत’मयी ख्याल ।

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